सल्तनत काल की प्रशासनिक व्यवस्था |THE DELHI SULTANATE ADMINISTRATION
सल्तनत काल की प्रशासनिक व्यवस्था |THE DELHI SULTANATE ADMINISTRATION
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सल्तनत काल की प्रशासनिक व्यवस्था |
THE DELHI SULTANATE ADMINISTRATION
सल्तनत काल में भारत में एक नई
प्रशासनिक व्यवस्था की शुरुआत हुई जो मुख्य रूप से arabi-farsi पद्धति पर आधारित थी।
इस इस काल में खलीफा, पैगंबर के बाद इस्लामिक
संसार का सर्वोच्च नेता था। प्रत्येक सुल्तान के लिए आवश्यक होता था कि वह खलीफा से अपनी शासन की मान्यता प्राप्त करें।
सुल्तान:- यह दिल्ली सल्तनत काल में
प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था। उस पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं होता था।
यह सेना का सर्वोच्च सेनापति और न्यायालय का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था।
अमीर:- सल्तनत काल में सामान्यतः
प्रभावशाली पदों पर नियुक्त व्यक्तियों को सामान्य रूप से अमीर कहा जाता था। बलबन तथा अलाउद्दीन खिलजी के समय अमीरों का महत्व कम
हो गया लेकिन लोदीयों के समय इनकी शक्ति बढ़ गई।
CENTRAL ADMINISTRATION OF DELHI SULTANATE
सल्तनत काल में मंत्री परिषद को मजलिस-ए-खलवत कहा जाता था। इसकी सहायता
मानने के लिए सुल्तान बाध्य नहीं होता था।
मजलिस-ए-खलवत की बैठक मजलिस-ए-खास में होती थी। सुल्तान अपने सभी
दरबारियों, अमीरों, मुल्लों, मौलवियों आदि
को बर्र-ए-खास में बुलाता था। तथा सुल्तान
अपने राजकीय कार्यों का अधिकांश कार्य बर्र-ए-आजम
में पूरा करता था।
सामान्यतः दास वंश के काल में
मंत्रियों की संख्या 4 थी। कालान्तर में यह 6 हो गई।
- वजीर:- सुल्तान का प्रधानमंत्री होता था मुख्यतः यह राजस्व विभाग का प्रमुख होता था। सुल्तान की अनुपस्थिति में शासन का कार्यभार वजीर ही देखता था।
इसकी सहायता के लिए निम्नलिखित अधिकारी
होते थे-
I. नायब वजीर:- इस पद का सृजन बहराम शाह के
शासनकाल में उसके सरदारों ने किया था। दुर्बल सुल्तानों के समय यह अंतिम
महत्वपूर्ण पद रहा कालांतर में सुल्तानों द्वारा इस पद को समाप्त कर दिया गया।
II. मुशरिफ-ए-मुमालिक
( महालेखाकार ):- या प्रान्तो एवं अन्य विभागों से प्राप्त होने वाले आय-व्यय का ब्यौरा रखता
था। इसकी सहायता के लिए नाजिर होते थे।
III.
मुस्तौफी-ए-मुमालिक ( महालेखा परीक्षक ):- इसका मुख्य कार्य महालेखाकार
की लेखा-जोखा की जाँच करना था। लेकिन कभी-कभी यह मुसरिफ की तरह आय व्यय का
निरीक्षण भी करता था।
IV.
मजमुआदार:- इसका मुख्य कार्य उधार दिए गये धन का
हिसाब रखना और आय-व्यय को ठीक करना था।
V. दीवान-ए-वकूफ:- इस विभाग की स्थापना
जलालुद्दीन खिलजी के द्वारा की गई थी। यह व्यय के कागजातों की देखे-रेख करता था।
VI.
दीवान-ए-मुस्तखराज:- वित्त विभाग की अधीन इस विभाग की
स्थापना अलाउद्दीन खिलजी ने की थी। इसका मुख्य कार्य राज्य करों का हिसाब रखना था।
VII.
दीवान-ए-अमीरकोही:- इस विभाग की स्थापना मोहम्मद बिन
तुगलक के द्वारा की गई थी। इस विभाग की स्थापना का मुख्य उद्देश्य मालगुजारी व्यवस्था
को ठीक प्रकार से चलाना तथा बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाना था।
2. आरिज-ए-मुमालिक:- इसे दीवान-ए-अर्ज
भी कहा जाता था। इसका मुख्य कार्य सैनिकों की भर्ती करना उनका हुलिया दर्ज करना
तथा घोड़े पर दाग का निरीक्षण करना था। इस पद का सृजन बलबन ने किया था।
3. वकील-ए-सुल्तान:- इस विभाग की स्थापना
नसीरूद्दीन महमूद के द्वारा की गई थी। इसका कार्य शासन व्यवस्था एवं सैनिक
व्यवस्था की देखभाल करना था। कालान्तर में इस पद को समाप्त कर दिया गया था।
4. दीवान-ए-इंशा:- इस विभाग पर राज्य के पत्राचार
का उत्तरदायित्व था। इस विभाग का प्रमुख दवीर-ए-मुमालिक होता था। यह विभाग सुल्तान
तथा अन्य देशों के मध्य तथा सुल्तान एवं प्रांतीय शासकों के मध्य पत्राचार पर
नियंत्रण रखता था। इसी विभाग द्वारा शाही आदेश या फरमान भेजे जाते थे।
5. दीवान-ए-रिसातल:- यह विदेशों से पत्र व्यवहार
एवं विदेशी राजदूतों की व्यवस्था का देखभाल करता था।
6. सद्र-उस्र-सुदूर:- यह धर्म तथा राजकीय दान
विभाग का सर्वोच्च पदाधिकारी होता था। इसका मुख्य कार्य इस्लामिक नियमों एवं उप
नियमों को लागू करना था। तथा मुसलमानों से प्राप्त धार्मिक कर जकात पर इस
पदाधिकारी का अधिकार होता था।
7. काजी-उल-कुजात:- सुल्तान के पश्चात न्याय विभाग
का सर्वोच्च अधिकारी होता था। मुकदमे प्रायः इसी के न्यायालय में शुरू किए जाते
थे। इनके न्यायालय में नीचे की कार्यों के निर्णय पर विचार किया जाता था।
8. बरीद-ए-मुमालिक:- गुप्तचर तथा डाक विभाग का
अधिकारी होता था।
9. वकील-ए-दारमहल:- इसका मुख्य कार्य शाही महल एवं
सुल्तान की व्यक्तिगत सेवाओं का देखभाल करना था। इस पद पर अत्यंत महत्वपूर्ण
व्यक्ति को ही नियुक्त किया जाता था।
10. बारबक:- यह शाही दरबार के
शानों-शौकत, रस्मों तथा मर्यादाओं की रक्षा करता था।
11. अमीर-ए-हाजिब:- यह सुल्तान से
मिलने वाले सभी लोगों की जांच पड़ताल करता था।
12. अमीर-ए-शिकार:- यह सुल्तान के
शिकार की व्यवस्था करता था।
13. अमीर-ए-मजलिस:- यह राज्य में होने
वाले उत्सवों आदि का प्रबंध करता था।
14. सर-ए-जानदार:- यह सुल्तान के
व्यक्तिगत अंगरक्षक दल का प्रधान होता था।
15. अमीर-ए-आखूर:- यह शाही अस्तबल का
प्रमुख होता था।
16. शहना-ए-पील:- यह हस्तिशाला का
प्रमुख होता था।
17. दीवान-ए-इस्तीफाक:- यह पेंशन
विभाग का अध्यक्ष होता था।
18. दीवान-ए-खैरात:- यह दान विभाग का
प्रमुख अध्यक्ष होता था। मुस्लिम गरीबों के कल्याण के लिए फिरोज तुगलक ने इस विभाग
की स्थापना की थी।
सल्तनत काल की शासन व्यवस्था
दिल्ली सल्तनत काल की शासन व्यवस्था मुख्यतः सैनिक शक्ति पर आधारित थी। सुल्तान की सेना
में मुख्यतः चार प्रकार के सेना शामिल थे।
- सुल्तान द्वारा रखे गए सैनिक
- सरदारों तथा प्रांत अध्यक्षों द्वारा रखे गए स्थाई सैनिक
- युद्ध के समय भर्ती किए गए अस्थाई सैनिक
- जिहाद अर्थात धर्म युद्ध लड़ने वाले सैनिक जिन्हें युद्ध में लूट द्वारा प्राप्त धन में हिस्सा मिलता था।
सेना के तीन भाग थे-
- घुड़सवार सेना - यह सेना का मुख्य भाग था।
- गज सेना
- पैदल सेना - इसे पायक कहा जाता था। ये संख्या में सर्वाधिक होता था।
सल्तनत कालीन सैन्य
व्यवस्था का शुभारंभ इल्तुतमिश के शासन काल में प्रारंभ होता है। इसके द्वारा स्थापित सेना को हश्म-ए-क्लब अथवा क्लब-ए-सुल्तानी
कहा जाता था। इसके शासनकाल में सामंती एवं प्रांत पतियों की सेना को हसन-ए-अतराफ कहा जाता था। तथा घुड़सवारी सेना को सवार-ए-क्लब
कहा जाता था।
इल्तुतमिश के समय सेना को नगद वेतन ना देकर उन्हें अक्ता
प्रदान की जाती थी। लेकिन अलाउद्दीन खिलजी के
समय सैन्य स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन हुए इसने सैनिकों को अक्ता प्रदान करने के
स्थान पर उन्हें नगद वेतन देना आरंभ किया।
सल्तनत काल में सेना का वर्गीकरण मंगोल
सेना के वर्गीकरण की तरह दशमलव प्रणाली पर
आधारित थी। इसमें 10 अस्वारोहियों की एक टुकड़ी को सरखेल
कहा जाता था। सरखेल सबसे छोटी सैनिक ईकाई होता था। इसमें 10 सवार
होते थे।
10 सरखेलों की एक टुकड़ी
के अध्यक्ष को सिपहसालार तथा 10 सिपहसालारों के टुकड़ी का प्रधान अमीर
होता था। तथा 10 अमीरों का ।प्रधान एक मलिक होता था। 10 मालिकों का
प्रधान एक खान होता था। 10 खान का प्रधान सुल्तान होता था।
युद्ध के समय सुल्तान को समस्त जानकारी
साहिब-ए-वरीद-ए-लसकर भेजता था। एवं तलेया नामक गुप्तचर शत्रु की सेना के गतिविधियों की
सूचना एकत्र करता था।
सलतनत काल में युद्धास्त्रों के रूप में प्रचलित यंत्र
- कुशकंजिर- तोप का प्रारंभिक रूप, मगरिब, मंजनिक
- गरगज - एक प्रकार का चलायमान मंच
- सबत - प्रक्षेपक से रक्षा करने वाली सुरक्षित गाड़ी
- चर्क- यह शिला प्रक्षेपास्त्र होता था उस समय फलाखुन अर्थात गुलेल भी युद्ध का अस्त्र था।
सल्तनत काल में अच्छे
नस्ल के घोड़े तुर्की एवं रूस से मंगाए जाते थे तथा हाथी बंगाल से प्राप्त होते
थे।
दिल्ली सल्तनत काल की न्यायिक व्यवस्था
सल्तनत काल में सुल्तान राज्य का
सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। मुस्लिम कानून के चार प्रमुख स्रोत है कुरान, हदीस,अजमा
एवं कयास।
कुरान:- यह मुस्लिम कानून का प्रमुख
स्रोत था। इसमें उल्लेखित नियमों की सहायता से प्रशासकीय समस्याओं का समाधान किया
जाता था।
हदीस:- इस ग्रंथ में पैगंबर के
कार्यों और कथनों का उल्लेख किया गया है। जब कुरान के नियमों के माध्यम से किसी
समस्या का समाधान नहीं होता था तो हदीस का सहारा लिया जाता था।
अजमा:- मुस्लिम कानूनों की व्यवस्था
करने वाले विधि शास्त्रीयों को मुजाहिद कहा जाता था। अतः मुजाहिद द्वारा किए गए
व्यवस्था कानून को अल्लाह की इच्छा माना जाता था। और इसी के आधार पर न्याय प्रदान
किया जाता था।
कयास:- जब उपरोक्त किसी भी व्यवस्था
से दंड देना संभव नहीं होता था तो तुर्क के आधार पर कानून को परिभाषित किया जाता
था जिसे कयास कहा जाता था। और इसी के आधार पर न्याय प्रदान किया जाता था।
सलतनत काल की वित्तीय व्यवस्था
सल्तनत युग की वित्त नीति सुनीं विधि वेताओं की हनीफ शाखा के सिद्धांत पर
आधारित थी। इस विविधताओं ने राज्य के वित्त को दो भागों में विभाजित किया धार्मिक
तथा धर्मनिरपेक्ष
धार्मिक कर के अंतर्गत जकात आता था जो केवल
मुसलमानों को ही देना पड़ता था। तथा धर्मनिरपेक्ष
कर के अंतर्गत जजिया, खराज
तथा खम्स आता था जिसे गैर मुसलमानों को देना
पड़ता था।
1. धार्मिक कर:- जकात या सदका दोनों एक ही प्रकार
का कर था। यह एक धार्मिक कर था जो मुसलमानों से लिया जाता था। यह केवल संपन्न वर्ग के मुसलमानों से लिया जाता था जकात
के अंतर्गत करो को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
- प्रत्यक्ष कर
- परोक्ष कर
प्रत्यक्ष कर:- के अंतर्गत पशु तथा कृषि से
प्राप्त उपज पर कर था।
परोक्ष कर:- के अंतर्गत व्यापार की
वस्तुएं सोना, चाँदी इत्यादि आते थे।
किसी भी व्यक्ति से जकात कर प्राप्त
करने की दो सर्त थी।
- वही व्यक्ति जकात कर देने के लिए वाध्य होता था, जो
संपत्ति को पूरे एक वर्ष तक उपभोग करता था।
- निर्धारित मात्रा से अधिक धन होने पर ही उसे जकात देना पड़ता था।
आवश्यकता की वस्तु
पर जकात कर नहीं लगता था। संपत्ति की न्यूनतम मात्रा को निसाब
कहा जाता था। जकात कर आय का 2.5% लिया जाता था।
उस्र:- यह भी एक धार्मिक कर था तथा
इसे भी केवल मुसलमानों से लिया जाता था। यह कर
केवल भूमि की उपज पर लिया जाता था। इस कर से
नाबालिग दास आदि भी मुक्त नहीं थे। इस कर की वसूली में बल का भी प्रयोग किया जा
सकता था।
यह कर प्राकृतिक साधनों से सिंचित भूमि
पर 1/10 और
राज्य के द्वारा सिंचाई की सुविधा प्रदान की जाती थी वहां इसकी दर कुल उपज का 1/5
भाग होती थी।
धर्मनिरपेक्ष कर
जजिया:- कर सुल्तान द्वारा गैर मुसलमानों से उनकी संपत्ति तथा सम्मान की रक्षा
का दायित्व अपने ऊपर लेने के बदले में लिया जाता था। साथ ही सैनिक सेवा से मुक्ति
पाने के बदले में गैर मुसलमानों को जजिया कर देना पड़ता था।
इस कर से ब्राह्मण, महिलाएँ,
बच्चे एवं साधु मुक्त थे। परंतु फिरोज तुगलक ने
ब्राह्मणों से भी जजिया कर वसूला।
जजिया कर देने वालों का तीन वर्ग था।
- सम्पन्नय वर्ग जिस से चालीस टका
- मध्यमवर्ग जिससे बीस टका
- सामान्य वर्ग जिससे दश टका
खराज:- यह भी धर्मनिरपेक्ष कर की
श्रेणी में आता था। यह कर गैर मुसलमानों से
लिया जाता था। लेकिन यदि कोई मुसलमान खराज वाली भूमि पर कृषि कार्य करता था तो
उससे भी यह कर वसूल किया जाता था। खराज उपज का 1/3 से लेकर 2/3 भाग
तक होता था।
खम्स:- धर्मनिरपेक्ष कर के अंतर्गत
यह तीसरा और अंतिम कर था। वस्तुतः खम्स लूट का धन
होता था जो युद्ध में शत्रु राज्य की जनता से लूट में प्राप्त होता था। लूट
का 4/5 भाग
सैनिकों में बाँट दिया जाता था तथा 1/5 भाग केंद्र कोष में
जमा कर दिया जाता था।
लेकिन अल्लाउद्दीन खिलजी तथा मोहम्मद
बिन तुगलक के समय इसके विपरीत 4/5 भाग केंद्रीय कोष में जमा कर दिया जाता था तथा 1/5
भाग सैनिकों में बाँट दिया जाता था।
सल्तनत काल में लगान का निर्धारण
सल्तनत काल में बटाई या बख्शी लगान निर्धारण करने की एक प्रणाली
थी। इसके तहत दो उपायों से यह लगान प्राप्त किया जाता था।
- लगान पदाधिकारी को उस समय भेजा जाता था जब फसल तैयार होता था।
- लगान पदाधिकारी को उस समय भेजा जाता था जब फसल तैयार होने के बाद उसका माप-तौल होना होता था।
सल्तनत काल में तीन तरह की बटाई थी
- खेत बटाई:- जब खड़ी फसल अथवा खेत बोने के तुरंत बाद ही सरकार का हिस्सा निर्धारित कर दिया जाता था तो वह खेत बटाई कहलाता था।
- लंक बटाई:- खेत काटने के बाद खलिहान में लाए गए अनाज से भूसा निकाले बिना ही कृषक एवं सरकार के बीच बंटवारा लंक बटाई कहलाता था।
- रास बटाई:- इसके तहत खलिहान में अनाज से भूसा अलग करने के पश्चात सरकारी हिस्सों को अलग कर देना था।
लगान निर्धारण की एक
मिश्रित प्रणाली भी थी जिसको मुक्ताई कहा जाता था। सल्तनत काल में कर निर्धारण का तीसरा
तरीका नाप-जोख या मसाहत था।
इस प्रणाली में भूमि के क्षेत्रफल के
आधार पर उपज का निर्धारण किया जाता था। और उसी के अनुसार कर का निर्धारण किया जाता
था। सल्तनत काल में इस प्रणाली को पुनर्जीवित करने का
श्रेय अलाउद्दीन खिलजी को जाता है।
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