दिल्ली सल्तनत का विघटन। DISINTEGRATION OF THE DELHI SULTANATE
दिल्ली सल्तनत का विघटन। DISINTEGRATION OF THE DELHI SULTANATE
दिल्ली सल्तनत के विघटन का प्रारंभ
फिरोज तुगलक एवं मोहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में ही प्रारंभ हो चुका था। और बाद
में यह बढ़ते गया और दिल्ली सल्तनत के विभिन्न भागों में बहुत ही स्वतंत्र वंशों
का उदय हुआ।
जौनपुर:- जौनपुर नगर की स्थापना जूना खाँ की स्मृति में फिरोज तुगलक ने करवाई थी। जौनपुर में पृथक राज्य की स्थापना का श्रेय ख्वाजा जहाँ
को है। जो फिरोज तुगलक के पुत्र सुल्तान मोहम्मद का दास था तथा अपनी योग्यता से 1389 ई० में वजीर बन गया
था।
1394 ई० मे सुल्तान
महमूद ने अपने दरबार के ख्वाजा जहाँ के नाम से प्रसिद्ध मलिक सर्वर को मलिक-उस-शर्क अर्थात पूर्व का स्वामी की उपाधि
प्रदान की। इसी के नाम पर यह राज्य शर्की राज्य
कहलाया।
इसने 1398 ई० मे तैमूर के दिल्ली पर आक्रमण से
उत्पन्न अनिश्चितताओं का लाभ उठाते हुए अपने आप को स्वतंत्र शासक घोषित कर लिया
तथा अतबाक-ए-आजम की उपाधि धारण की। इसने कभी भी सुल्तान की उपाधि धारण नहीं कि। इसकी
मृत्यु 1399 ई० में हो गई।
जौनपुर |
ख्वाजा जहाँ की मृत्यु के बाद इसका दत्तक पुत्र मलिक कर्नफल गद्दी पर बैठा।
इसने मुबारक
शाह की उपाधि धारण की और सिक्कों पर अपना नाम खुदवाया।
इसी के शासनकाल में महमूद तुगलक के
वजीर मल्लू इकबाल खाँ ने जौनपुर पर आक्रमण
किया लेकिन वह असफल रहा। इसकी मृत्यु 1402 ई० में हो गई।
मुबारक शाह की मृत्यु के पश्चात इब्राहिम शाह शासक हुआ। इसने स्वयं सिराज-ए-हिंद की उपाधि ली तथा 34 वर्षों तक शासन किया।
यह विद्या का बड़ा प्रेमी था इसने जौनपुर के नगर में बहुत सी सुंदर इमारतों का
निर्माण करवाया।
इसी के काल में एक नए प्रकार की शैली शर्की शैली का उदय हुआ। इस शैली में मस्जिदों से
साधारण प्रकार की मीनारें हटा दी गई और उनमें हिंदू प्रभाव के चिन्ह झलकने लगे।
इसी के शासनकाल में
जौनपुर को पूरब का सिराज की उपाधि प्राप्त हुई।
अटाला देवी मस्जिद का निर्माण भी इब्राहिम शर्की के द्वारा करवाया गया। यह पूर्ण रूप
से बनकर 1408 ई० में तैयार हुआ। इस मस्जिद का निर्माण कन्नौज के राजा जयचंद द्वारा निर्मित
अटाला देवी मंदिर को तोड़कर किया गया था।
झंझरी मस्जिद जौनपुर की एक महत्वपूर्ण मस्जिद है
जिसका निर्माण इब्राहिम शर्की ने लगभग 1430 ई० में करवाया।
महमूदशाह शर्की:- इब्राहिम शाह की मृत्यु के
पश्चात महमूद शाह गद्दी पर बैठा। इसने दिल्ली पर आक्रमण किया किंतु बहलोल लोदी ने
इसे हरा दिया। इसकी मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी के लड़ाई में सरदारों ने इसके
पुत्र भीखम की हत्या कर दी। और उसके पश्चात हुसैनशाह जौनपुर की गद्दी पर बैठा।
हुसैनशाह शर्की:- हुसैनशाह जौनपुर का अंतिम
शासक था। यह आरंभ से अंत तक दिल्ली से संघर्ष करता रहा। बहलोल लोदी ने हुसैन शाह
को परास्त कर उसे बिहार की ओर खदेड़ दिया तथा अपने भाई बारबक
को गद्दी पर बैठाया। 1500
ई० में हुसैन शाह की मृत्यु हो गई, इसकी मृत्यु के साथ ही शर्की वंश का अंत हो गया।
प्रसिद्ध हिंदी महाकाव्य
पद्मावत का रचयिता मलिक मोहम्मद जायसी जौनपुर का ही निवासी था।
जौनपुर के सभी शासकों ने अरबी-फारसी साहित्य को संरक्षण प्रदान किया था।
मालवा:-
मालवा का इतिहास बहुत ही
प्राचीन है लेकिन सल्तनत काल में इसे सर्वप्रथम अलाउद्दीन
खिलजी ने 1310 ई० में मिलाया। और यह तब तक दिल्ली
सल्तनत का हिस्सा रहा जब तक कि दिल्ली सल्तनत का विघटन प्रारंभ न हो गया।
मालवा का इतिहास |
दिलावर खाँ को फिरोज तुगलक के समय मालवा
का प्रांत अध्यक्ष बनाया गया था। यह बहुत ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। इसने तैमूर
के आक्रमण से फैली अस्त व्यस्तता से लाभ उठाकर अपने आप को स्वतंत्र शासक घोषित कर
दिया। लेकिन इसने शाह की उपाधि कभी भी ग्रहण नहीं कि। इसकी मृत्यु 1405 ई० में हो गई।
1405 ई० में दिलावर खाँ
की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र अल्प खाँ हुशंगशाह
की उपाधि धारण कर मालवा की गद्दी पर बैठा। हुशंगशाह ने गुजरात के शासक अहमदशाह से
कई लड़ाइयाँ लड़ी इसने धारानगरी जो विद्या
प्रेमी शासक राजा भोज की राजधानी थी के स्थान
पर अपने द्वारा बताए गए नगर मांडू को अपनी
राजधानी बनाया।
इसने धर्मनिरपेक्ष नीति का पालन करते
हुए एक जैनी नरदेव सोनी को अपना खजांची बनाया। इसकी मृत्यु 1435 ई० में हो गई।
हुशंगशाह ने हिंडोला
के महल का निर्माण मांडू में करवाया।
मालवा राज्य के मांडू में स्थित इमारत जामी मस्जिद
के निर्माण कार्य का प्रारंभ हुशंगशाह के शासनकाल
में हुआ, लेकिन
यह महमूद खिलजी के समय में पूरा हुआ।
1435 ई० में हुशंगशाह की
मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र गजनी खाँ मोहम्मदशाह
की पदवी धारण कर गद्दी पर बैठा। इसकी अयोग्यता से लाभ उठाते हुए 1436 ई० में इसके मंत्री महमूद खिलजी ने
गद्दी पर अधिकार कर एक नए राजवंश खिलजी वंश की
स्थापना की।
मालवा का खिलजी वंश
मालवा का खिलजी वंश |
मालवा के खिलजी वंश का
संस्थापक सुल्तान महमूद खिलजी था। यह मालवा के मुस्लिम शासकों में सबसे योग्य था। इसने गुजरात के शासक अहमदशाह प्रथम, दिल्ली
के मोहम्मदशाह तथा मेवाड़ के राणा कुंभा से संघर्ष किया, जिसमें कोई फैसला नहीं
हो सका। लेकिन दोनों पक्ष जीत का दावा करते हैं एक तरफ कुंभा ने जीत के उपलक्ष में
चित्तौड़ में विजय स्तंभ तथा महमूद खिलजी ने मांडू में सात मंजिलों वाला मीनार
बनवाया।
महमूद खिलजी को मिस्र के खलीफा ने भी
मान्यता प्रदान की इसने सुल्तान अबू सईद के
दूत का स्वागत किया। सुल्तान अपने फुर्सत के क्षणों में दुनिया के विभिन्न
राज-दरबारों के इतिहास और संस्मरणों को सुनने में व्यतीत करता था। इसकी मृत्यु 1469 ई० में हो गई।
महमूद खिलजी के बाद उसका उत्तराधिकारी गयासुद्दीन शासक हुआ। 1500 ई० में इसकी मृत्यु
हो गई इसके बाद इसका उत्तराधिकारी नसीरुद्दीन शाह
शासक बना। तत्पश्चात इस वंश का अंतिम शासक आजम
हुमायूं महमूद शाह द्वितीय सिंहासना रूढ हुआ इसने चंदेरी के शक्तिशाली
राजपूत शासक मेदनीराय को अपना वजीर नियुक्त
किया।
मेदनीराय ने सभी महत्वपूर्ण पदों पर
हिंदुओं को नियुक्त किया। लेकिन बाद में मेदनीराय को इस ने निष्कासित कर दिया मगर
मेदनीराय ने राणा सांगा की सहायता से इसे परास्त कर दिया। 1531 ई० में गुजरात के शासक बहादुरशाह ने मालवा पर अधिकार कर
मालवा की स्वतंत्रता समाप्त कर दी।
बाज बहादुर एवं रूपमती
के महल का निर्माण सुल्तान नसीरुद्दीन शाह द्वारा करवाया गया था।
गुजरात:- अल्लाउद्दीन
खिलजी ने राजा कर्ण को परास्त करके 1297 ई० में गुजरात को
दिल्ली सल्तनत के अधीन कर लिया था। इसके पश्चात 1401 ई० तक
यह दिल्ली सल्तनत का एक हिस्सा रहा। लेकिन 1391ई० में
मोहम्मद शाह तुगलक द्वारा नियुक्त गुजरात के सूबेदार जफर
खाँ ने अपने आप को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। तथा 1407 ई० में सुल्तान मुजफ्फर शाह की उपाधि
धारण कर गुजरात पर शासन किया। 1411ई० में इसकी मृत्यु हो गई।
गुजरात |
इसके पश्चात अल्प
खाँ अहमदशाह के नाम से शासक बना। इसने 1411-1433 ई० तक शासन किया गुजरात के स्वतंत्र राज्य का वास्तविक संस्थापक अहमदशाह को
माना जाता है। अहमद शाह ने अहमदाबाद की
स्थापना की तथा उसे अपनी राजधानी
बनाया।
अहमदाबाद में ही इसने
प्रसिद्ध जामा मस्जिद का निर्माण करवाया। इसने अपने पूरे शासनकाल में कभी भी पराजय का मुंह नहीं
देखा।
1459 ई० में फतहखां को
सिंहासन पर बैठाया गया उसने अबुल-फतह-महमूद की
उपाधि धारण की। इसी शासक को इतिहास में महमूद बेगड़ा
के नाम से जाना जाता है। गिरनार तथा चंपानेर का किला
जीतने के कारण इसे बेगड़ा की उपाधि मिली थी। इसने गिरनार
का नाम मुस्तफाबाद तथा चंपानेर का नाम मोहम्मदाबाद रखा।
यह एक उदार शासक था लोग प्रायः उसे इस
उदारता के कारण जर वखश कहते थे। उसके मृदुल
स्वभाव के कारण लोग उसे करीम भी कहते थे।
मिस्र के एक विद्वान बद्-उद्-दीन-दमामीनी ने
उसे विद्वानों में सुल्तान तथा सुल्तानों में विद्वान कहा है।
यह भी एक धर्मान्ध शासक था। इसने गुजरात के हिंदुओं पर प्रथम बार जजिया कर लगाया। इसका दरबारी
कवि उदयराज था जिसने राजा विनोद नामक
एक ग्रंथ लिखा। यह महमूद बेगड़ा की जीवनी है।
महमूद बेगड़ा का पौत्र सुल्तान बहादुरशाह 1526 ई० में गुजरात का शासक बना। इसने 1531-32
ई० में महमूद खिलजी को परास्त कर मालवा को गुजरात में मिला लिया।
इसकी पुर्तगालियों से प्रतिद्वंद्विता चली जिसमें वह पुर्तगाली गवर्नर नूनो दा कुन्हा के निमंत्रण पर उससे मिलने पुर्तगाली
जहाज पर गया जहाँ उसकी हत्या कर दी गई। यह गुजरात का
अंतिम स्वतंत्र शासक था। 1572 ई० में अकबर ने गुजरात को मुग़ल सल्तनत में मिला लिया।
उड़ीसा:- उड़ीसा में एक शक्तिशाली
राज्य स्थापित करने का श्रेय अवन्तिवर्मन चोड़ गंग
देव को जाता है। इसने 1076 ई० से 1148 ई० तक शासन किया। पुरी के जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कार्य इसी ने
प्रारंभ करवाया था। मगर उसे पूरा करने का श्रेय
नरसिंह वर्मन को जाता है। इसने पूरी जिले में कोणार्क के सूर्य मंदिर का
निर्माण करवाया। कोणार्क के सूर्य मंदिर को ब्लैक
पैगोडा के नाम से भी जाना जाता है।
बंगाल अभियान से लौटते हुए फिरोज तुगलक
ने उड़ीसा का अभियान किया। इसी अभियान से गंग वंश की प्रतिष्ठा काफी गिर गई और 1434-1435 ई० में गंग
वंश का स्थान कपिलेंद्र वंश ने ले लिया।
इतिहास में इस वंश के शासक गजपति नाम से जाने
जाते हैं।
बंगाल:- बंगाल और बिहार को दिल्ली
सल्तनत में शामिल करने का श्रेय मोहम्मदबीन बख्तियार
खिलजी को जाता है। बलबन के समय बंगाल स्वतंत्र हो गया मगर पुनः इसे दिल्ली
के शासन मे बलबन लाने में सफल रहा। बलबन के उपरांत बलबन के पुत्र बुगरा खाँ बंगाल को पुनः दिल्ली सल्तनत से अलग कर
लिया।
बंगाल |
गयासुद्दीन तुगलक ने बंगाल की समस्या को समाप्त
करने के लिए इसे तीन भागों में बाँट दिया। लेकिन इस विभाजन के होने के बाद भी
बंगाल की स्थिति नहीं सुधरी और मोहम्मद तुगलक
के काल में 1338 ई० में फकरुदीन मुबारक शाह ने अपने आप
को बंगाल का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया।
1345 ई० में हाजी इलियास ने अपने आप को सारे बंगाल का स्वतंत्र
शासक घोषित कर दिया। इसका दमन करने का प्रयास फिरोज तुगलक ने किया लेकिन वह असफल
रहा। इसकी 1357 ई० में मृत्यु के पश्चात सिकंदर शाह गद्दी पर बैठा इसने 1357 ई० से 1389 ई० तक शासन किया।
सिकंदर शाह के पश्चात गयासुद्दीन आजमशाह शासक हुआ। यह अपनी न्याय प्रियता
के लिए विख्यात था इसने प्रसिद्ध अदीना मस्जिद
का निर्माण करवाया। तथा चीन के मिंग शासक के
दरबार में एक दूतमंडल भेजा जिसमें बौद्ध भिक्षु भी शामिल थे।
आजमशाह के पश्चात कुछ समय के लिए
अव्यवस्था आ गई और फिर 1415
ई० में एक हिंदू शासक जारा कंस
ने गद्दी पर अधिकार कर लिया। उसने द्नुजमर्दन देव
की उपाधि ली। राजा कंस के पुत्र ने मुस्लिम दबाव को देखते हुए इस्लाम कबूल कर लिया
तथा जलालुद्दीन के नाम से 1418 ई० तक शासन किया। पुनः एक
लंबे काल तक अव्यवस्था रही। फिर 1493 ई० में हुसैन शाह शासक
बना।
हुसैन शाह ( 1493 - 1518 ई० )
यह बंगाल के मुस्लिम सुल्तानों में
श्रेष्ठ एवं विख्यात शासक माना जाता है। यह अरबी मूल का सैयद था। इसके 24 साल के कार्यकाल में
एक भी विद्रोह नहीं हुआ।
हुसैन शाह बांग्ला
भाषा में रामायण का अनुवाद करने वाले प्रसिद्ध विद्वान कृतिवास सनातन
के काफी करीब था। बंगला रामायण को बंगाल का बाइबिल
कहा जाता है।
हुसैन शाह चैतन्य
महाप्रभु का समकालीन था। इसने सतदीरे नामक आंदोलन की शुरुआत
की। हिंदू जनता इसे कृष्ण का अवतार मानती थी।
इसने नृपति तिलक, एवं जगत
भूषण जैसी
उपाधियां ग्रहण की थी।
इसके समय में मालाधार
वसु ने श्रीकृष्ण विजय की रचना की तथा गुणराज
की उपाधि धारण की।
नासिरूद्दीन नुसरत शाह ( 1518 - 1532 ई० )
इसने महाभारत का बंगला भाषा में अनुवाद
करवाया। नुसरत शाह ने बरा सोना मस्जिद ( सुनहरी
मस्जिद ) तथा कदम रसूल मस्जिद का निर्माण करवाया। इस
वंश का अंतिम शासक गयासुद्दीन महमूद था जिसे शेरशाह ने 1538 ई० में हराकर बंगाल
पर अधिकार कर लिया।
कश्मीर
कश्मीर लंबे समय तक मुस्लिम विजयों से
मुक्त रहा। 1339 ई० तक वह हिंदू शासकों के अधीन रहा। कश्मीर
पर मुस्लिम शासन का प्रारंभ समसुद्दीन शाह ने किया जो एक व्यापारी था।
जिसने 1339 ई० में कश्मीर पर अधिकार कर लिया।
इसकी मृत्यु 1349 ई० में होने के बाद
इसके चार पुत्रों ने 40 वर्षों तक शासन किया इसके पश्चात 1389
ई० मैं सिकंदर शाह सिंहासन पर
बैठा इसी के शासनकाल में तैमूर ने 1398 ई० मे कश्मीर पर
आक्रमण किया किन्तु सिकंदर ने कश्मीर पर तैमूर के आक्रमण को असफल कर दिया।
यह एक क्रूर शासक था। इसने अनेक हिंदू
मंदिरों को तोड़ा तथा हिंदुओं को मुसलमान बनाने का अभियान छेड़ा। माना जाता है कि
इन सभी कदमों के पीछे उसके एक मंत्री सुहाभट्ट
का हाथ था।
सिकंदर शाह की मृत्यु के पश्चात उसका
पुत्र अलीशाह सिंघासनारूढ हुआ मगर उसके भाई शाह खाँ ने उसे परास्त कर जैन
उल अबीदीन की उपाधि धारण कर सिंहासन पर बैठा। यह कश्मीर का सबसे बड़ा शासक
था। शासक बनने के पश्चात इसने धार्मिक सहिष्णुता का परिचय देते हुए हिंदुओं पर से
जजिया कर को समाप्त कर दिया।
इसने महाभारत व
राजतरंगिणी का फारसी भाषा में अनुवाद करवाया। जैन-उल-अबीदीन
को उसकी प्रशंसनीय कार्य के लिए कश्मीर का अकबर भी कहा जाता है। यह स्वयं
एक कवि था तथा कुतुब उपनाम से कविताएं लिखा
करता था। 1407 ई० में इसकी मृत्यु हो गई। बाद के शासक उतने महत्वपूर्ण नहीं थे। 1586
ई० में अकबर ने कश्मीर को मुगल साम्राज्य में मिला लिया।
बहमनी राज्य
अन्य सभी राज्यों की भांती बहमनी राज्य
की उत्पत्ति भी दिल्ली सल्तनत के पतन के फलस्वरूप 1347 ई० में मोहम्मद
बिन तुगलक के समय हुई। मोहम्मद बिन तुगलक
ने दक्षिण मे साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण करते हुए दक्षिण के अधिकांश भागों पर
अधिकार कर लिया। साथ ही उसने सुदृढ़ प्रशासन स्थापित करने का भी प्रयास किया।
स्थापित प्रशासनिक अंगों में शादी जो अनुमानित 100 गांवों पर नियुक्त अधिकारी थे।
यह शादी ना केवल राजस्व वसूल करते थे
वरन सैनिक टुकड़ियों के भी प्रधान होते थे। ऐसी स्थिति में जनता उन्हें शासन का
वास्तविक कर्णधार मानते थी। जब तुगलक शासन के विरुद्ध विद्रोह हुए तो इस शादी
अमीरों ने भी विद्रोह कर दिया तथा इस्माइल शाह
को अपना नेता चुन लिया।
साथ ही इस्माइल शाह ने अमीरों के इस
संघ के प्रमुख व्यक्ति हसन को अमीर उल उमरा और जफर
खाँ की उपाधि से विभूषित किया। लेकिन बाद में इस्माइल शाह ने जफर खाँ के
पक्ष में सत्ता समर्पित कर दी। यही जफर खाँ ने 1347 ई०
में अलाउद्दीन हसन बहमन शाह की उपाधि धारण कर बहमनी राज्य की स्थापना की।
सिंहासन पर बैठने के बाद इसने गुलबर्गा को अपनी राजधानी चुना और उसका नाम अहसानाबाद कर दिया। इसने अपने राज्य के प्रबंध के
लिए उसे चार भागों गुलबर्गा, दौलताबाद,
बराट एवं बीदर में बांट दिया। अपने शासन के अंतिम दिनों में इसने दाबूल पर
अधिकार कर लिया जो पश्चिमी समुद्र तट पर बहमनी साम्राज्य का सबसे महत्वपूर्ण
बंदरगाह था। फरवरी 1358 ई० में इसकी मृत्यु हो गई।
इसका उत्तराधिकारी मोहम्मद शाह प्रथम
हुआ। मोहम्मद शाह प्रथम का उत्तराधिकारी मोहम्मद शाह द्वितीय हुआ। मोहम्मद शाह
द्वितीय का उत्तराधिकारी फिरोजशाह हुआ। फिरोजशाह एक विद्वान व्यक्ति था और विभिन्न
भाषाओं का ज्ञाता था माना जाता है कि वह अपनी पत्नियों से अलग-अलग भाषाओं में बात
करता था।
1422 ई० मैं अहमदशाह शासक हुआ। इसने गुलबर्गा
के बदले बीदर को अपनी राजधानी बनाया। अहमद शाह का उत्तराधिकारी अलाउद्दीन हुआ और उसका उत्तराधिकारी हुमायूं हुआ जो एक क्रूर शासक था। तथा जालिम शाह के नाम से जाना जाता था। इसका
उत्तराधिकारी निजामशाह हुआ।
1482 ई० के बाद बहमनी
साम्राज्य की वास्तविक सत्ता कासिम बरीद उल-मुमालिक
और उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र अमीर-उल-बरीद
के हाथों में चली गई। अमीर-उल-बरीद दक्कन की लोमड़ी
के नाम से विख्यात है। 1527 ई० में अमीर-उल-बरीद ने अंतिम बहमनी शासक कलीमुल्लाह को खदेड़ दिया और बीदर
में बरीदशाही वंश की स्थापना की।
मेवाड़
अल्लाउद्दीन राणा रंजीत सिंह के समय
चित्तौड़ को जीत लिया था। 1314
ई० में सिसोदिया राजकुमार हम्मीर
ने इसे आजाद कराया। मोहम्मद तुगलक के समय में हम्मीर ने चित्तौड़ को जीत लिया तथा
संपूर्ण मेवाड़ को स्वतंत्र करा लिया। विद्वानों के अनुसार इसने 64 वर्ष तक शासन किया।
हम्मीरदेव के पश्चात उसका पुत्र
क्षेत्रसिंह गद्दी पर बैठा। इसके पश्चात लक्खा गद्दी पर बैठा। इसके पश्चात मोकल
गद्दी पर बैठा। एवं मोकल के पश्चात राणा कुंभा शासक बना यह मालवा के महमूद खिलजी
के समकालीन था।
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