दिल्ली सल्तनत गुलाम वंश| इल्तुतमिश और बलबन


दिल्ली सल्तनत गुलाम वंश| इल्तुतमिश और बलबन 

प्रिये पाठकों जैसा की आप सभी जानते ही, हैं की आजकल की लगभग सभी परतियोगिता परीक्षाओं में इतिहास से सम्बंधित प्रश्न अकसर पूछे जाते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुवे आज Easy Mathematics अपने इस पोस्ट में दिल्ली सल्तनत से जुडी कुछ परीक्षोपयोगी परीक्षाओं के लिये उपयोगी तथ्य को आपलोगों के लिए लेकर आया है। अतः आप हमारे इस पोस्ट “दिल्ली सल्तनत गुलाम वंश| इल्तुतमिश और बलबन ” को पढ़ सकते हैं।
दिल्ली सल्तनत गुलाम वंश| इल्तुतमिश और बलबन
दिल्ली सल्तनत

दिल्ली सल्तनत गुलाम वंश| इल्तुतमिश और बलबन 

इल्तुतमिश ( 1211 - 1236 )
इल्तुतमिश
इल्तुतमिश तुर्किस्तान के इल्बरी जाति से संबंधित था। उसका पिता इलक खाँ एक कबायली सरदार था। बचपन में उसके भाई ने उसे दास बना कर बेच दिया था। कालांतर में कुतुबुद्दीन ऐबक ने उसे खरीद लिया क्योंकि वह एक योग्य सेनानायक और सक्षम व्यक्ति था इसलिए उसे जल्दी ही पदोन्नति मिली कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के पश्चात उसने आरामशाह को जूद की लड़ाई में पराजित कर सत्ता पर अधिकार कर लिया।
इल्तुतमिश में अपनी राजधानी लाहौर से दिल्ली स्थानांतरित कर ली।
इल्तुतमिश के शासनकाल का वर्गीकरण
इल्तुतमिश के संपूर्ण शासनकाल को तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है।


प्रथम भाग ( 1210 - 1220 ई० ) इसने अपने विरोधियों व प्रतिद्वंद्वियों का दमन किया इनमें कुत्बी और मुइज्जी सामंत, याल्दौज, कुबाचा और अलीमर्दान प्रमुख थे।
इनके दमन के लिए ही इल्तुतमिश ने अपने विश्वसनीय चालीस दासों को सामंतों के रूप में नियुक्त किया। जिससे तुर्कान-ए-चेहलगामी में कहा जाता है।
इल्तुतमिश के शासनकाल के दूसरे भाग ( 1221 - 1229 ) ई० 1221 ई० में सबसे पहली बार मंगोल लोग अपने प्रसिद्ध नेता चंगेज खाँ के नेतृत्व में ख्वारिज्म के अंतिम शासक जलालुद्दीन मंगबरनी का पीछा करते हुए सिंधु नदी के तट पर पहुंच गए थे।

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इल्तुतमिश ने मंगोल नीति का निर्धारण किया, बंगाल को सल्तनत में शामिल करना तथा राजपूतों की समस्या का समाधान किया इल्तुतमिश ने कूटनीति व दूरदर्शिता का परिचय देते हुए ख्वारिज्म के राजकुमार मंगबरनी की सहायता ना कर दिल्ली सल्तनत को चंगेज खाँ के आक्रमण से बचाया।
बंगाल के शासक हिसामुद्दीन इवाज को आत्मसमर्पण पर मजबूर किया। इल्तुतमिश ने राजपूताना में कई अभियान की जिनमें कालिंजर, रणथंभौर, मंडोर आदि की विजय प्रमुख है।
अपनी शासन के अंत में इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था के निर्माण की ओर ध्यान दिया सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने फरवरी 1229 ई० में बगदाद के खलीफा से सुल्तान पद की वैधानिक स्वीकृति प्राप्त की तब से उसका पद कानूनी हो गया उसे खलीफा ने सुल्तान-ए-आजम की उपाधि प्रदान की।
आंतरिक प्रशासन के क्षेत्र में इल्तुतमिश का सबसे महत्वपूर्ण योगदान इक्तादारी प्रथा का विकास था।
जिसने पूरे सल्तनत काल में उसे सुदृढ़ता प्रदान करने में प्रमुख भूमिका निभाई उसने अरबी प्रथा के आधार पर एक नई मुद्रा प्रणाली भारत में लागू की।
इल्तुतमिश पहला ऐसा तुर्क सुल्तान था जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलाये।
इल्तुतमिश और बलबन दोनों को मामलुक कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है गुलामी के बंधन से मुक्त माता-पिता से उत्पन्न वंशज।
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  • इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम राजतंत्र को वंशानुगत बनाने का प्रयास किया।
  • इल्तुतमिश को भारत में मकाबरा निर्माण शैली का जन्मदाता माना जाता है, इसके द्वारा निर्मित पहला मकबरा नासिरूद्दीन का मकबरा सुल्तानगढी था।
    मकबरा नासिरूद्दीन का मकबरा सुल्तानगढी
    मकबरा नासिरूद्दीन का मकबरा सुल्तानगढी
  • इल्तुतमिश ने चाँदी के सिक्के चलवाये। इसके सिक्कों पर शिव के बैल की आकृति पाई गई है।

इल्तुतमिश ने अपना उतराधिकारी अपनी बेटी रजिया को घोषित किया मगर उसकि मृत्यु के बाद विरोधी शासकों ने रूकमुदीन फिरोजशाह को सुल्तान घोषित कर दिया।
इल्तुतमिश और बलबन के बीच चार शासक हुए।
1.  रूकनुद्दीन फिरोजशाह ( 1236 ई० )
2.  रजिया सुल्तान ( 1236 - 1240 ई० ) :- दिल्ली सल्तनत कि पहली महिला सुल्तान थी।
रजिया का विवाह भटिण्डा के गर्वनर अल्तुनिया के साथ हुआ था।
रजिया के पतन के दो कारण थे-
1.  तुर्की अमीरों की ईष्या
2.  उसका स्त्री होना
बहराम शाह ( 1240 - 1242 ई० )
इसके काल में दो महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं-
1.  इसी समय प्रथम बार नायब-ए-ममलिकात पद का सृजन हुआ और इस पद को प्राप्त करने वाला प्रथम व्यक्ति इखितयारूद्दीन एतगीन था।
2.  इसी के समय में तैर बहादुर के नेतृत्व में 1241 ई० मे प्रथम मंगोल आक्रमण हुआ।
नासिरूद्दीन महमूद ( 1246 - 1266 ई० )
इसके काल में कुछ थोड़े से समय को छोड़कर शासन सत्ता पूर्णतया उसके नायब बलबन के हाथों में रही।
बलबन ( 1266 - 1286 ई० )
इसका मूल नाम बहाउद्दीन था। गयासुद्दीन बलबन ने एक नए राज्य बलबनी राज्य की स्थापना की। बलबन इल्तुतमिश की तरह इल्बरी जाति से संबंधित था।
बलबन को ख्वाजा जमालुद्दीन नाम का एक व्यक्ति खरीदकर 1232-33 ई० में दिल्ली लाया था। इल्तुतमिश ने ग्वालियर को जीतने के उपरांत बलबन को खरीद लिया था। नसीरूद्दीन महमूद की मृत्यु के उपरांत 1266 ई० में अमीर सरदारों के सहयोग से यह बलबन के नाम से दिल्ली की सिंहासन पर बैठा।
7 अक्टूबर 1249 ई० को नसीरूद्दीन महमूद ने इसे उल्लू खाँ की उपाधि प्रदान की और सेना के नायब-ए-ममलिकात का पद प्रदान कर उसे कानूनी रूप से सब अधिकार सौंप दिए शासक बनने के बाद सर्वप्रथम बलबन ने इल्तुतमिश द्वारा चालीस सरदारों के दल को समाप्त किया तथा तुर्क अमीरों को शक्तिशाली होने से रोका।
  • बलबन ने जिल्ले-ए-इलाही ( ईश्वर का प्रतिनिधि ) की उपाधि धारण की। बलबन ने बंगाल के विद्रोही सुल्तान तुगरिल खाँ का भी अंत किया।
  • बलबन ने पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत पर मंगोल आक्रमण के भय को समाप्त करने के लिए एक योजना का गठन किया और इसके तहत दीवान-ए-आरिज की स्थापना की एवं इमादुलमुल्क को इस पद पर पदस्थापित किया।

बलबन ने अयोग्य एवं वृद्ध सैनिकों को पेंशन देकर मुक्त करने की योजना चलाई तथा अपने सैनिकों के वेतन का भुगतान नगद रूप में करना प्रारंभ किया।
  • बलबन ने तुर्क प्रभाव को कम करने के लिए फारसी परंपरा पर आधारित सिजदा प्रथा को प्रारंभ किया जिसमें घुटने पर बैठकर सम्राट के सामने सिर झुकाना पड़ता था।
  • साथ ही इसने पाबोस प्रथा प्रचलित किया जिसमें सुल्तान के पांव को चूमना पड़ता था।
  • बलबन ने अपने विद्रोहियों के प्रति लौह एवं रक्त की नीति का अनुसरण किया इसके अंतर्गत विद्रोहियों की हत्या कर उसकी स्त्री एवं बच्चों को दास बना लिया जाता था।
  • बलबन ने अपने शासनकाल में अमीर वर्ग को खान की उपाधि प्रदान की।

बलबन के राजपथ सिद्धांत के महत्वपूर्ण तथ्य-
1.  राजा को राजवंश से संबंधित होना चाहिए।
2.  राजा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि होता है अतः उसके द्वारा किया गया कार्य न्याय संगत होता है।
3.  बलवान ने अपने राजपद सिद्धांत के तहत उच्च कुल एवं निम्न कुल के व्यक्तियों के बीच अंतर स्थापित करने को महत्व दिया।
4.  बलबन ने कहा कि राजपथ के लिए भव्य दरबार एवं दिखावटी मान मर्यादाओं का होना आवश्यक है।
बलबन ने अपनी राजपथ सिद्धांत के तहत ही अपने पुत्रों का राजाओं के नाम की तरफ कैकूबाद, कैखुसरो एवं कैकाउस रखा इसका दरबार इरानी परंपरा के अनुसार सजाया गया था। 
ईरानी पद्धति पर उसने नवरोज का त्योहार भी मनाना प्रारंभ किया।
बलबन ने ईश्वर शासक एवं जनता के बीच त्रिपक्षीय संबंधों को राजपथ का आधार बनाया इसने खलीफा के महत्व को स्वीकार करते हुए अपने द्वारा जारी किए गए सिक्कों पर खलीफा का नाम अंकित कराया।
बलबन शरीयत का कट्टर समर्थक था और वह दिन में 5 बार नमाज पढ़ता था तथा उलेमाओं का बहुत सम्मान करता था।
  • बलबन के राज दरबार में अमीर खुसरो एवं अमीर हसन रहते थे। साथ ही ज्योतिष एवं चिकित्सक मौलाना अमीमुद्दीन मुतरीज तथा प्रसिद्ध मौलाना हिसानुद्दीन इसके दरबार में रहते थे।
  • बलबन की मृत्यु 80 वर्ष की अवस्था में 1286 ई० में हो गई।

बलबन ने अपना उत्तराधिकारी कैखुसरो को बनाया था पर दिल्ली के कोतवाल फकरुदीन ने कैकूबाद को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया लेकिन बाद में कैकूबाद को लकवा मार गया। प्रशासन के कार्य में उसे असक्षम देखकर तुर्क सरदारों ने कैकूबाद के 3 वर्षीय पुत्र समसुदीन क्यूमर्श को सुल्तान घोषित कर दिया लेकिन बाद में जलालुद्दीन फिरोज खिलजी ने समसुदीन का वध कर दिया तथा एक नए वंश खिलजी वंश की स्थापना की।


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